सागर
दुनिया रुपी सागर में बसा है कैसा धमचक्र
न कोई आहट है न हलचल, बस चल रहा है जीवन चक्र |
सिंधु की अकर्मण्यता को माना ढकता है प्रतिबिम्बित नूर
पर अस्थिरता राहत का नहीं तूफ़ान का संकेत है ज़रूर |
हर व्यक्ति घिरा है निरर्थक एक मायावी जाल में,
वर्तमान की नहीं सुध-बुध, डूबा वह भविष्य काल में |
बन्धायमान है सदा औपचारिकता के बोझ से
व्यस्त है वो बिन डुबकी लगाए मणि-माणिक्य की खोज में |
भयभीत है वह अनअपेक्षित संकट के आगमन पर
एक किनारे पर ही रुक जाए वह भीड़ को देखकर |
आरेख-सा लगे है ये अचल जीवंत दृश्य ऐसा
रुकी-सी कश्ती, ठहरी-सी लहर और तट पर खिवैया मृतजीव जैसा |
न कोई ऊर्जा, न कोई हिलोर
न कोई तरंग है न हर्ष रुपी उर्मि का ज़ोर |
मांझी! आने वाले तूफ़ान की दस्तक के न हो आधीन
बढ़ा अपनी नैया और उठने दे इस सागर में तरंगे नवीन |
जो भी विपत्ति आएगी, योगयुक्त मन से कर लेना सरल
भवसागर पार करने पर चमकेगा जीत का परचम |
जीवन के उत्थान-पतन में लहरों का अस्तित्व गहरा
समृद्ध वही है जो बढ़ता चले, क्यों व्यर्थ एक कोने में ठहरा |
सतह से हटा आडम्बर और दिखावटी अलंकार
तट पर चंचल लहरें और भीतर भर प्यार का भण्डार |
निरंतर संकल्प से जीवन नौका को पार लगाना है,
साहिल में ही जीना, और इसी में एक दिन मिल जाना है ||