मैं कौन हूँ

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 लकड़ी की उस टूटी चौखट से

सर्दी की धुँधली-सी ओस से

मैने उजला सूरज देखा जब

तो पता चला मैं कौन हूँ ।।

वो लोगो की बासी सोच से

और बॉस की गाली गलौच से

मैं करीबी दोस्त से मिली जब

तो पता चला मैं कौन हूँ ।।

अधूरे काम की थकान से

वो भूली-सी प्यास से

जब शाम को घर लौटके आई

तो पता चला मैं कौन हूँ ।।

वो खोखले दस्तावेजों के बोझ से

और कड़वे शब्दों की खोज से

मैं थक के गीत लिखने बैठी जब

तो पता चला मैं कौन हूँ ।।

वो जीत के अभिमान से

वो हार के पश्चाताप से

प्रसन्न चित्त से शून्य हो कर ही

मुझे पता चला मैं कौन हूँ ।।

वो प्यार के मोह से

और नफ़रत के अंजाम से

विरक्त होके झूमने लगी जब

तो पता चला मैं कौन हूँ ||

सब कहते तू साधारण है हम जैसी

क्यों करती है अलग बातें ऐसी

जो हम है वही तुम हो

चुपचाप चलो चुपचाप चलो!

सफेद अंधेरा था उनका उजाला

पर उसको मैने कह दिया काला

‘मैं वो हूँ जो तुमसे अलग हूँ

चुपचाप जलूँ चुपचाप जलूँ’!

वो पागल भीड़ के शोर से

वो दुनिया के निरर्थक ज़ोर से

रोशनी की तलाश में भागी मैं जब

तो पता चला…

 मैं कौन हूँ ।।

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