प्रकृति
है कुछ रहस्य इस आलौकिक प्रकृति में
रचना में इसकी किसी की अद्भुत काया है।
जोड़ूँ जब मैं इसको खुद से
कुछ न भेद समझ में आया है।
नदी का पानी जैसे बहता है कल-कल
वैसे ही इच्छाओं ने मन को बहाया है।
ठहरे तालाब में दिखता जैसे दर्पण
शाँत चित्त व्यक्तित्व की वैसी छाया है।
सूरज की लालिमा जैसे आकाश में चम-चम
कुछ वैसा ही तेज मेरे चेहरे पर समाया है।
सफ़ेद चाँद सुर्ख़ बादलों से झाँके जैसे
वैसी शितलता बिखरने का भाव मन में आया है।
उसकी बहायी ये हवा ठंडी – सी लगे है
किसी मुस्कान को इसने अपने अंदर दबाया है।
खुले आकाश में ये पंछी भी उड़ चले
परों ने इनके आज़ादी गीत गाया है।
समुद्र की लहरें मानो हिचकोले मीठी यादों के
किनारे पर बैठे याद आता वह मीठा साया है।
बचपन में जिस खुश्क मिट्टी पर खूब खेलें
अंत में उसी में प्रकृति ने मिलाया है।
ये कुदरत जो बाहर है वही भीतर भी है
कैसी विस्मयी उपरवाले की माया है ।
हम सब एक ही माला के मोती हैं
फ़िर किसने बैर सिखाया है ।
प्रकृति के धागे में हम सब बंधे हैं
यही जानकर मन में प्यार आया है ।
जोड़ूँ जब मैं इसको खुद से
कुछ न भेद समझ में आया है।