तलाश

दिखाए रास्तों पर मैं चलती रहती

करती वही जो मुझसे दुनिया कहती ।

रुक गयी अचानक एक ख़्वाब जीने को

कुछ अधूरी तलाश पूरी करने को ।

न समझा कोई जिससे थी उम्मीद लगाई

मेरी लिखाई किसी को समझ में न आई।

कहने लगी मुझे दुनिया पागल है

ये कैसा रोग जिसका न कोई हल है ।

चाहे जो भी हो, कुछ भी हो

इस नई राह से अलग न होऊँ ।

एक दिन जिसपे चलने को

छोड़ आई मैं खोखले रिवाज़ों को ।

ऐसे ही होते हैं मनमौजी

जिन्होंने बिन सहारे मंज़िल खोजी ।

हार न माने वो असफ़लता के पीछे

दुनिया ने जितना भी दबाया नीचे ।

ऐसा ही साहस मुझमे भी जागा

छिपी प्रतिभा की तरफ़ मन जब भागा ।

लिखती रहूँ जो भी मेरे दिल में आए

भले ही कलम की स्याही ख़त्म हो जाए |

अब तो यही सपना है, यही मेरी पूजा

काम समझ में न आये मुझे कोई दूजा ।

जानती हूँ, मैं दुनिया के विरुद्ध खड़ी हूँ

क्या करूं हालात से मजबूर बड़ी हूँ ।

हाँ, मुश्किलें बहुत सी हैं

वक़्त की भी कमी-सी है ।

धीरे ही सही, चलना तो है

गिरके ही सही, उठना तो है ।

गर सुलझा सकती ये राहों की पहेली

न होती मैं इस भीड़ में अकेली ।

अकेले ही सही, संघर्ष तो करना है

आग में ही सही, अब तो तपना है ।

मैं कौन हूँ, क्या हूँ, खुद भी न जानूं

आखिर किस पहचान को मैं अपना मानूँ ।

खुद से अनजान मैं घिसती हूँ कलम को

शायद मेरे सवालों का यहीँ-कहीँ हल हो ।

जब शब्दों में मेरे भाव झलकेंगे

मुझे न सही वो मेरी कला को समझेंगे ।

शायद इसलिए…रुक गयी ये ख़्वाब जीने को

कुछ अधूरी तलाश पूरी करने को ।।

Bharti Jain
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