किसके लिए ?
सुबह की रोशनी अब अंधेरे-सी लगे
दूर इससे भाग मैं नींद में छिप जाऊँ
जल्दी जागती भी तो किसके लिए
है ही कौन जिसे प्यार से उठाती
बड़े शौक से मैं सजती – सवरती
और फिर नज़रें नीची कर मुस्काती
तारीफ़ पाने भर को मैं झूठ-मूठ इतराती
और प्यार की मीठी बात सुनके शर्मा जाती
वो मोहलत भले ही कुछ पलों की होती
उनको ऑफिस जाने की जल्दी जो होती |
…
पर किसके लिए मैं भागूँ रसोई तक
और पुछूँ कि आज खाने में क्या बनाऊँ
है ही कौन जिसकी आवाज़ आ जाती
तो बातें करते करते मैं नाश्ता लगाती
बेमानी बातें वो अधूरी रह जाती
आफिस की गाड़ी जब दरवाज़े पर आती
पर ऐसा है ही कौन जिसे “वक़्त पे खा लेना” कहके टिफ़िन पकड़ाऊँ
और दफ्तर जाता देख चुपके से आँसू छलकाऊँ
…
सुबह से दिन और दिन से शाम हो जाए
पर किसी के आने की आहट भी न आए
फ़िर किसके लिए बैठूँ मैं आंगन में
और देर से आने पर डाँट लगाऊँ
पल भर का गुस्सा वो छूमंतर हो जाता
जब कान पकड़के कोई प्यार से मनाता
पर शाम की वो चाय किसके लिए बनाऊँ
जिसकी हर मीठी चुस्की पर ढेरों बातें होती
मन का अकेलापन दूर हो जाता
जब सुख-दुख बांटने कोई यूँ पास बिठाता
…
कोई ऐसा होता तो कितना अच्छा होता
ज़िन्दगी में शायद अकेलापन न होता
पर है ही कौन जिसकी यादों मे खो जाऊँ
अपने सूनेपन के लिए किस पर मैं दोष लगाऊँ
बस इसी खयाल से मैं रोज़ाना उठ जाऊँ
और आईने में खुद ही को देख धीमें से मुस्काऊँ ।